कोई नहीं ....... Motivation story about confidence
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ज्योतीबाबू ने प्लास्टिक की लीड पाईप नल की टोंटी में लगा कर पानी खोल दिया। पानी बड़ी तेजी से लंबे पाईप में दौड़ने लगा। पाईप के बीच में हवा के कुछ बुलबुले फँसे हुए थे, जो पानी की गति से ही पाईप के दूसरे छोर की ओर भागे जा रहे थे।
कई जगह से गोल-गोल लपेटे गये पाईप में इन बुलबुलों की गति से ही पानी की गति का अंदाजा लग रहा था।
ज्योति बाबू को लगा की मनुष्य भी तो इन्हीं बुलबुलों की तरह है, जो वक्त के पाईप में दुनिया की भीड़ के साथ भागता रहता है और एक दिन वह इस पाईप के मुहाने पर पहुँच कर समाप्त हो जाता है, प्रकृति में ही समाहित हो जाता है।
जब तक ज्योति बाबू पाईप के दूसरे छोर तक पहुँचे, पानी पहुँच चुका था और क्यारी में फैलने लगा था। बीच में फँसे बुलबुले एक-एक करके बाहर निकल गये और पानी समान गति से प्रवाहित होने लगा।
पाईप के मुँह पर हल्के से उँगली लगा दी पानी की पतली-पतली कई धारें, फब्बारे की शक्ल में, टमाटर के पौधों को भिगोने लगीं।
टमाटर के पौधों में पानी लगाना, सुबह उठने के बाद ज्योति बाबू का पहला काम था, यह पौधे उन्होंने जरा देर से लगाये थे। करीब-करीब दिसंबर बीतते-बीतते।
यूँ तो रिटायरमेंट के बाद ज्योति बाबू ने इस क्यारी को कई तरह से उपयोग करने की योजना बनाई थीं लेकिन, फिलहाल अन्य योजनाओं में समय ज्यादा लगने की संभावना के कारण उन्होंने टमाटर लगाने का निर्णय ले लिया था।
ढाई सौ गज के प्लाट में पीछे यह जगह एक गड्ढे रूप में उन्हें मिली थी। मकान बनने के समय इसमें इतना सीमेंट, मोरंग और कूड़ा-करकट भर गया था कि इसे क्यारी की शक्ल देने में ज्योति बाबू को कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी।
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उन्हीं दिनों सब्जियों भाव अचानक आसमान छूने लगे थे। टमाटर के भाव साठ और सत्तर रुपये किलो तक पहुँच गये थे। टमाटर की इस अप्रत्याशित मंहगाई ने भी शायद ज्योति बाबू को टमाटर के पौधे लगाने के लिए प्रेरित किया।
नर्सरी में जब ज्योति बाबू टमाटर के पौधे लेने गये तो नर्सरी वाले के परामर्श से टमाटर के साथ-साथ गोभी और मिर्च के भी कई पौधे खरीद लाये। लेकिन उनमें से ज्यादातर के लिए कंकरीली पथरीली जमीन उपयुक्त साबित नहीं हुई।
धीरे-धीरे एक एक करके तमाम पौधे मरते चले गये। एक-दो मिर्च के पौधे तथा कुछ टमाटर के, बचे रह गये। जैसे-जैसे इन पौधों में नई कोपलें फूट रही थीं, ज्योति बाबू का मन भी हरा-भरा होता जा रहा था।
बलुई मिट्टी का क्षेत्र होने से पानी क्यारी से बहुत जल्दी गायब हो जाता। तीसरे-चौथे दिन वे क्यारी की निराई-गुड़ाई भी कर डालते।
निराई से पौधों को खरपतवार से बचाते और गुड़ाई से उनकी जड़ों को हवा और सूरज की गरमी मिलती। ऐसा करते हुए ज्योति बाबू को कुछ अजब सा सुकून मिलने लगा।
पौधों के साथ रह कर उन्हें ऐसा अनुभव होने लगा जैसे वे पौधे न होकर एक भिन्न प्रजाति में उनके परिवार का कोई विस्तार है। एक ऐसा परिवार जहाँ जीवन है, जीवन्तता है और विकास की तमाम सारी संभावनाएँ हैं।
ठीक इसी तरह ही तो ज्योति बाबू अपने बच्चों का भी लालन-पालन और देख-रेख करते थे। पढ़ाई-लिखाई, खान-पान, रहन-सहन सब पर पूरी नजर रहती थी उनकी
बच्चे किसके साथ उठ बैठ रहे हैं, कहाँ आ-जा रहे हैं, इन पर उनका पूरा ध्यान रहता था। दोनों लड़कियाँ तो ब्याह कर अपने-अपने घर चली गईं, लेकिन जीवन्त को वे कहाँ बचा पाये खरपतवार से।
इण्टर के बाद जीवन्त ने यूनिवर्सिटी ने प्रवेश क्या लिया, उसकी जीवनचर्या ही बदल गई।
रोज नये-नये फैशन की फरमाईश। आये दिन दोस्तों के साथ पिकनिक के कार्यक्रम। देर-सबेर घर आना और पूछने पर बहानेबाजी कर जाना।
शुरू में तो इकलौते लड़के के लिए, पत्नी रोहिणी की सिफारिश पर ज्योति बाबू जीवन्त के लिए पैसा मुहैया कराते रहे।
लेकिन जल्दी ही उन्हें एहसास हो गया कि लड़के के रँगढँग सही नहीं जा रहे हैं। एक दिन वे जीवन्त के बिस्तर के सिरहाने सिगरेट का पैकिट देख कर दमक ही पड़े
जीवन्त ! तुम्हारे तौर तरीके इस घर के संस्कारों जैसे नहीं लग रहे हैं, तुम, जितनी जल्दी हो सके, इन्हें बदल दो।
डैड आप सिगरेट देखकर इतने हैरान हो रहे हैं ! जमाना बहुत आगे जा रहा है! हम अगर जमाने के साथ-साथ नहीं चले तो बहुत पीछे रह जाएँगे ! जीवन्त ने धृष्टता की हद पार करते हुए कहा।
उसे तुम्हारे पिता ने रात-दिन एक करके, मेहनत और ईमानदारी से कमाया है। तुम्हें शर्म आनी चाहिए अपने आप पर।" -रोहिणी ने पूरी ताकत से हस्तक्षेप किया।
"पैसे चाहे ईमानदारी से आएँ या कहीं से छीन-झपटकर और बेईमानी से"। जीवन्त के तरकश में भी तीर खत्म नहीं हो रहे थे।
"जीवन्त आज तू कैसी बातें कर रहा है। कहीं तू नशा करके तो नहीं आया है। बन्द कर यह बकवास।" रोहिणी ने सख्त़ होते हुए कहा।
"
जीवन्त की नशे में डूबी ये बातें सुनकर ज्योति बाबू तो सन्न रह गए। रोहिणी भी कुछ बोलने की स्थिति में नहीं रह गई।
जिस घर में अण्डा क्या, प्याज-लहसुन तक न खाया गया हो, उसमें ही इकलौता लड़का सिगरेट फूँके और दारू पिए- यह आसानी से हज़म होने वाली घटना नहीं थी।
दोनों चुपचाप जीवन्त के कमरे का दरवाजा उढ़काकर अपने कमरे में चले गए।
......... कितनी-कितनी मन्नतें मानी थीं। उन्होंने इस लड़के के लिए। पूरी उम्र, अवसर मिलने पर भी, काली कमाई को हाथ तक नहीं लगाया था
ज्योति बाबू ने। वे कहते थे, अगर हमारी दाल-रोटी मेहनत की कमाई से चल रही है तो अपनी नीयत क्यों खराब करें ? इससे बच्चों के संस्कार बिगड़ते हैं। लेकिन क्या हुआ जीवन्त के संस्कारों का ?
पढ़ाई-लिखाई का फायदा क्या यही मिलना था कि इकलौता बेटा दारू के नशे में फिल्मों से डायलाग झाड़े, अपने ही माँ-बाप को ज़लील करे।
शायद संस्कार ही सब कुछ नहीं होते। आदमी जिस वातावरण में, जिन लोगों के साथ रहता है उनका भी असर उसके व्यक्तित्व पर पड़ता है।
आखिर टमाटर, गोभी और मिर्च के कितने पौधे लगाए थे। सब स्वस्थ थे। एक ही मिट्टी, पानी और हवा में उन्हें रोपा गया था। लेकिन बचे कितने ? कुछ की जड़ें सड़ गईं। कुछ को कीड़े खा गए। कुछ पनपे भी तो बाद में पीले पड़कर खत्म हो गए।
उन्होंने सबकी निराई-गुड़ाई एक-सी ही की थी, सब को एक ही तरह खाद-पानी और प्यार दिया था। ज्योति बाबू बार-बार अपने जीवन-दर्शन को नये सिरे से जाँचने का प्रयास करने लगते
आगे की कहानी अगले पार्ट में तब तक अपना ख्याल रखना
जय हिन्द जय भारत
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